गुरुवार, 21 जनवरी 2010

.......मर्ज बढता गया, ज्यों ज्यों दवा की
अरविन्द कुमार सेन
हॉकी इंडिया और खिलाड़ियों के बीच चल रहा घमासान फिलहाल थम गया है। हालांकि खिलाड़ी पुणे में चल रहे तैयारी शिविर में लौट गये हैं लेकिन यह कहना कठिन है कि उन समस्याओं का समाधान हो गया है जिनके लिए खिलाड़ियों ने बगावत की थी।
एक समय हॉकी में परचम लहराने वाली भारतीय हॉकी टीम आज अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है। याद करें उस समय को जब भारतीय हॉकी टीम ने अमेरिकी हॉकी टीम को 20 गोलों से रौंदा था और उसके बाद अमेरिका ने हॉकी प्रतियोगिताओं में भाग लेना छोड़ दिया था। ओलंपिक खेलों में सोने के तमगे जीतकर इतिहास रचने वाली भारतीय हॉकी टीम आज 12 देशों के विश्व पूल में 12वें स्थान पर है। भारतीय हॉकी टीम की हालत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पुरूषों की एशिया कप हॉकी में टीम पांचवें स्थान पर और जूनियर विश्व कप हॉकी में टीम नौंवे स्थान पर रही। महिला हॉकी टीम जरूर एशिया कप हॉकी में दूसरा स्थान पा कर हॉकी विश्व कप 2010 में जगह बनाने में कामयाब रही।

भारतीय हॉकी में उठापटक का दौर पिछले साल उस समय शुरू हुआ जब टीम बीजिंग ओलंपिक के लिए क्वालिफाई नहीं कर पाई। इसके बाद हुई छीछालेदर से परेशान सरकार ने केपीएस गिल को अध्यक्ष पद से हटाकर इंडियन हॉकी फेडरेशन को भंग कर दिया। इसके बाद अंतराष्ट्रीय हॉकी संघ के दबाव में पूर्व ओलंपियन अशोक कुमार के नेतृत्व में हॉकी इंडिया का गठन किया गया। हॉकी खिलाड़ियों के हाथ में कमान आने के बाद खेलप्रेमियों ने हॉकी का सुनहरा अतीत लौटने की उम्मीद लगाई लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात।
दरअसल जब से राजनेता खेलसंघों के कर्ताधर्ता बने हैं तब से स्थिति सुधरने की बजाय बिगड़ती जा रही है। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी, जिन्हें ठीक से हॉकी स्टिक पकड़ना नहीं आता होगा लेकिन वे हॉकी इंडिया के अध्यक्ष बनने की तैयारी कर रहे हैं। जब तक खेलसंघ नौकरशाही और राजनीति के चंगुल में फंसे रहेंगे, उनसे बेहतर प्रशासन की उम्मीद करना बेमानी है। अगर हमें खेलों की हालत सुधारनी है तो खेल संघों की कमान खिलाड़ियों के हाथ में सौंपनी होगी। राजनेता या उद्यमी अगर चाहें तो संरक्षक के तौर पर खेल संघों की सहायता कर सकते हैं। जहां तक हॉकी के खोये गौरव को पाने का सवाल है तो इसके लिए खिलाड़ियों, जनता और सरकार सभी को मिलकर प्रयास करने होंगे। हॉकी की दुर्दशा के लिए केवल क्रिकेट को जिम्मेदार ठहराना गलत है। कोई भी खेल तभी चल पायेगा जब लोग उसमें रूचि लें। अगर हॉकी खिलाड़ी यह ठान लें कि 90 मिनट के मैच में वो लोगों का दिल जीत लेंगे तो कोई कारण नहीं है कि हॉकी को क्रिकेट से कम प्यार मिलेगा। जहां क्रिकेट खिलाड़ियों कि छोटी छोटी उपलब्धियों को बढ़ा चढ़ाकर कर पेश किया जाता है वहीं हॉकी खिलाड़ियों का सम्मान करना तो दूर हम ज्यादातर का नाम भी नहीं जानते हैं। अगर हम धोनी के धुरंधरों से ध्यान हटाकर अपना थोड़ा सा समय हॉकी को दें तो हॉकी का गौरवशाली अतीत लौटने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। हॉकी के मामले में सरकार की भूमिका भी संदिग्ध रही है। केवल राष्ट्रीय खेल घोषित कर देने से ही हॉकी का उद्धार नहीं हो जायेगा। सबसे बड़ी बात है कि हॉकी को लोगों का खेल बनाना होगा। अगर ऐसा हुआ तो लूट-खसोट करने वाले अपने आप पीछे हट जायेंगे और खेल प्रेमी ही इसकी रक्षा का बीड़ा उठा लेंगे।
28 फरवरी से देश में हॉकी विश्व कप शुरू होने जा रहा है लेकिन किसी भी महानगर में भारतीय हॉकी टीम का पोस्टर नहीं लगाया गया है। हॉकी खिलाड़ियों को न तो टीवी पर प्रोडक्ट की तरह पेश किया गया है और न ही मीडिया उन्हें हीरो की तरह दिखा रहा है। ऐसा लग रहा है कि क्रिकेट की चमक दमक से मीडिया चौंधिया गया है और वह हॉकी तथा दूसरे खेलों को नहीं देख पा रहा है।
हॉकी इंडिया के चुनाव नवंबर में होने थे लेकिन अव्यवस्था का आलम यह है कि चुनाव अब तक नहीं हुए हैं। इससे बड़ी भ्रामक स्थिति क्या होगी कि विश्वकप शुरू होने में दो महीने से भी कम समय बचा है लेकिन खिलाड़ी अपनी मांगें मनवाने के लिए हड़ताल पर जाने को मजबूर हैं। हो सकता है कि वक्त की नजाकत को देखते हुए खिलाड़ियों की मांगें मान ली गई हों लेकिन ये फौरी उपाय दीर्घकाल के लिए नुकसानदायी साबित होंगे। सवाल यह है कि राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद हॉकी खिलाड़ी अपने मेहनताने के लिए हड़ताल पर जाने को मजबूर क्यों हुए हैं?
हॉकी खिलाड़ियों को एक सीरीज के लिए केवल 25 हजार रूपए दिये जाते हैं वहीं दूसरी ओर क्रिकेट खिलाड़ियों को भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड वनडे मैच के लिए डेढ़ लाख और टेस्ट मैच के लिए ढ़ाई लाख रूपए देता है। इसके अलावा सालाना अनुबंध के तहत बोर्ड खिलाड़ियों को न्यूनतम 15 लाख रूपए से लेकर अधिकतम 60 लाख रूपए तक का भुगतान करता है और विज्ञापनों से होने वाली आय अलग है। हॉकी खिलाड़ियों ने आरोप लगाया था कि उन्हें पिछले माह अर्जेन्टीना में हुई चैंपियंस ट्रॉफी का भुगतान अब तक नहीं किया गया, अगर ये आरोप सही हैं तो हम हॉकी की उपेक्षा का अंदाजा लगा सकते हैं।
विश्वकप नजदीक है लेकिन खिलाड़ी अपनी समस्याओं से परेशान हैं और हॉकी इंडिया जनवरी के आखिरी सप्ताह में होने वाले चुनावों में व्यस्त है। टीम का प्रदर्शन कैसा रहेगा इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। हॉकी को मेजर ध्यानचंद के दौर में पहुंचाने के लिए हॉकी इंडिया में आमूल-चूल परिवर्तन करने होंगे जिसकी भनक फिलहाल तो दूर-दूर तक नहीं है।

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