गुरुवार, 21 जनवरी 2010

परदे के पीछे के महारथी
हमारे आस पास निर्माण कार्यों में लगे मजदूर एक तरह से गुमनाम हीरो है,जिन्हें सराहा नहीं जाता है। इन्हें न कोई याद करता है और न ही इन्हें कोई सम्मान दिया जाता है। निर्माण कार्य पूरा होने पर किसी नेता या नौकरशाह को उद्घाटन के लिए बुलाया जाता है और इन भागीरथों को भुला दिया जाता है। ये मजदूर नींव की उस ईंट की भांति है जो इमारत को मजबूती देने के लिए खुद मिट्टी में दफन हो जाती है। निर्माण कार्यों में होने वाली दुर्घटनाओं में अनेक बार इन मजदूरों की जान चली जाती है लेकिन हम इनकी मौत पर संवेदना व्यक्त करना भी जरूरी नही समझते है। शायद हमारी संवेदनशीलता का स्त्रोत सूख गया है। ठेकेदार भी इन मजदूरों का जम कर शोषण करते है। तय मानको से कम मजदूरी इन्हें दी जाती है और दुर्घटना होने पर महज 30 से 40 हजार रूपये देकर पल्ला झाड़ लेते है।
निर्माण कार्यों में लगे ये मजदूर ज्यादातर दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों से आते है। महज 80 से 90 रूपये प्रतिदिन पाने वाले ये मजदूर रोटी, कपड़ा और मकान जैसी आधारभूत सुविधायें जुटा पाने में असमर्थ होते है। जहां निर्माण कार्य चल रहा होता है उसी जगह को ये अपना आशियाना बना लेते है। न पीने का साफ पानी और दूसरी जरूरी सुविधाएं लेकिन ये मजदूर अनवरत देश निर्माण में लगे रहते है। चाहे चिलचिलाती धूप हो या कड़कड़ाती सर्दी, ये लोग हमारे लिए चमकदार फ्लाईओवर और राजमार्ग बनाने में व्यस्त रहते है।
हम चाहे तो इन लोगों की सहायता कर सकते है। इस भयंकर सर्दी में ये मजदूर और इनके बच्चें खुले में ठिठुरते रहते है। हमारे घरों में पुराने कपड़ों का ढेर लगा रहता है। आइयें एक कसम लें कि हमारे आस पास काम कर रहे मजदूरों की सहायता करेंगे। अपने पुराने कपड़े फेंकने की बजाय अगर इन्हें देंगे तो शायद उनका सदुपयोग भी होगा और इस बहाने हम देश निर्माण में अपना योगदान दे पायेंगे।
नीति निर्माता भले ही लाख दावे करें लेकिन ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं को अपने पसीने से सींचने वाले ये मजदूर बदहाल जीवन जी रहे है। महिला मजदूरों और बच्चों की हालत तो और भी दयनीय है। इन सब समस्याओं के बावजूद ये मजदूर खामोशी के साथ नया भारत बनाने में जुटे है।

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