एक आग का दरिया है…अरविन्द कुमार सेनाकतावारिया
सराय की गली का एक कमरा। कमरे को देखकर ऐसा लगता है कि बनने केबाद से आज तक ताजी हवा और सूरज की किरणें नही पहुंची है। इसी कमरे में मैमिलने पहुंचा गोरखपुर के सदानन्द गुप्ता से जो पिछले नौ साल सेआईएएस कीतैयारी कर रहें है। जब मै पहुंचा तो दिन के लगभग दो बजे थे और सदानन्दअपनी पढाई में मशगूल थे। कमरे व्यवस्थित था जिसमें एक कोने में कुछकिताबें रखी थी वहीं दूसरे कोने में एक कैनवास और कुछ रंग रखे हुए थे।सदानन्द ने फर्श पर ही बिस्तर लगाया हुआ था और सामान के नाम पर एकरेडियो और एक चौकी रखी हुई थी। सदानन्द ने बताया कि महंगाई इतना बढ गई हैकि अब दोनो वक्त खाना खाना बन्द कर दिया है। वे कहते है कि पिछली बार घरगया था तो सत्तू लाया था और शाम के समय उसी से काम चला लेते है। सदानन्दयाद करते है नौ साल पहले का समय जब वो दिल्ली में आये थे। उस समय वोजितने रूपये में काम चला लेते थे उसके दुगुने में भी अब काम नही चल रहाहै। वे कहते है कि दूध और जूस का तो स्बाद भी भूल चुका हूं। कई दिन सेसुकूनभरी नींद को तरसती आंखे उनकी कहानी बयां कर देती है। दो अविवाहितबहनें शादी की उम्र पार कर चुकी है। घरवालें सारी जमा पूंजी उन पर खर्चकर चुके है। घर से जब भी फोन आता है तो केवल एक ही बात होती है नौकरी।केवल आईएएस ही क्यों? इस सवाल के जवाब में वे थोड़ा गंभीर हो जाते है।बताते है कि पिछले छ: प्रसासों में हर बार साक्षात्कार तक पहुंचा हूंलेकिन हर बार अंतिम सूची में जगह नही बना पाया। हर बार प्रारंभिक परीक्षामें चयन होने के बाद दोस्त कहते है कि इस बार निश्चित ही चयन हो जाएगालेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात। रूंधे गले के साथ कहते है कि इस बारअंतिम प्रयास है और समझ में नही आ रहा है कि क्या होगा। वे कहते है किमाताजी को आईएएस का मतलब नही पता है, वह कहती है कि बेटा बड़ा बाबू नहीबन पा रहे हो तो छोटा बाबू क्यों नही बन जाते। दो बार रेलवे में और एकबार बैंक में चयन हो चुका है लेकिन सिविल सेवा के मोह के कारण नही गए।उम्र इतनी हो चुकी है कि अब किसी नौकरी के योग्य नही है। अगर इस बार चयननही हुआ तो क्या करेंगे। सदानन्द एक फीकी हंसी के साथ कहते है कि ऐसा हुआतो यमराज और छोटा राजन में से ही एक को चुनना होगा। माता-पिता के सपने औरकुंआरी बहनों के बारे में सोचता हूं तो कलेजा कांपने लगता है और कदमलड़खड़ा जाते है। अब खाली हाथ घर भी नही जा सकते है।आईएएस बनने के बाद क्या रिश्वत लेंगे? सवाल के जवाब में उनकी मुठ्ठीयांभिंच जाती है और चेहरे पर एक आक्रोश झलकनें लगता है। वे कहते है किरिश्वत क्यों नही लूंगा। जब ये समाज मेरी बहन की शादी के लिए रिश्वत लेताहै और मुझसे विश्वविद्यालय में नोकरी की एवज में रिश्वत मांगी जाती है तोमै रिश्वत क्यों नहीं लूं। पिछलें छ: प्रयासों में मैने धौलपुर हाउस मेंईमानदारी की बात करने वाले खूब देखे है। ईमानदारी और सादगी की बातें केवलकिताबों में ही अच्छी लगती है। अगर आपके पास पैसा हो तो सिद्धान्त अपनेआपबन जाते है।कमरें में रखे कैनवास और रंगों की इशारा करते हुए मैने पूछा कि पेटिंगमें रूची थी तो उस क्षेत्र में क्यों नही गए। यह सुनकर सदानन्द के चेहरेपर खुशी की लहर दौड़ जाती है और फिर वे यादों के भंवर में डूब जाते है।वे कहते है कि जिंदगी थ्री इडियटस फिल्म जितनी आसान नही होती है। कितनीरूची थी पेटिंग में और कितने ही चित्र बनाये थे लेकिन सब अरमान धरे रहगए। पिताजी ने कहा कि ये चित्रकारी खाली बैठे अमीर आदमियों का चोंचला है,किसी सरकारी नौकरी के लिए प्रयास करों।सदानन्द तो एक बानगी भर है, न जाने कितने सदानन्द मुनिरका, कटवारिया सरायऔर मुखर्जी नगर की गलियों में अपने सपनें खोज रहे है। महज पांच सौ सीटोंके लिए लगभग तीन लाख छात्र इस रण में उतरते है। किसी शायर की कही येपंक्तियां इस समर के लिए कितनी उपयुक्त बैठती है “एक आग का दरिया है, बसडूब के जाना है।“
गुरुवार, 21 जनवरी 2010
लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट और बाबरी का भूत
अरविन्द कुमार सेन
आखिर 17 साल के इंतजार के बाद लिब्रहान आयोग ने अपनी रिपोर्ट पेश कर दी है। इस मसले पर आखिरी समय तक राजनीति होती रही। पहली बात तो रिपोर्ट आने में इतना समय लगा कि वह उद्देश्य ही पूरा नही हो पाया जिसके लिए आयोग गठित हुआ था। दरअसल इस दौरान अधिकांश आरोपी इस रिपोर्ट के दायरे से बाहर हो गए। एक समय ऐसा भी आया जब इस घटना के जिम्मेदार लोग ही देश के कर्त्ता धर्त्ता बन बैठै। यह रिपोर्ट अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है क्योंकि राजनीतिक परिस्थितियां पूरी तरह से बदल चुकी है। इस बीच बाबरी विध्वंस के जिम्मेदार लोग सत्ता की मलाई भी खा चुके है। न्याय में देरी एक तरह से न्याय का अपमान ही है।
इस रिपोर्ट में नया कुछ भी नही है। देश की जनता को तब भी पता था कि इसके लिए कौन लोग जिम्मेदार है। यह आयोग आग लगने के बाद कुआं खोदने की हमारी पुरानी आदत का ही एक प्रमाण है। रिपोर्ट में अटल बिहारी वाजपेयी का नाम आने पर भाजपा भड़क गई । उनका कहना है कि वाजपेयी की बाबरी विध्वंस में कोई भूमिका नही थी इस कारण वाजपेयी का नाम नही आना चाहियें। क्या भाजपा को वाजपेयी का वह बयान याद है जिसमें उन्होंने कहा था कि मै नेता बाद में हूं , पहले एक स्वयंसेवक हूं। क्या भाजपा को अटलजी का बाबरी विध्वंस के एक दिन पहले पत्रकारों को दिया वह बयान याद है जिसमें उन्होंने कहा था कि मुझे नही पता कल क्या होने वाला है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश की पालना के कारसेवक अयोध्या जरूर जायेंगे। वाजपेयी जिस पार्टी के लगभग 25 साल सर्वोच्च नेता रहे उन्हें पार्टी की सामूहिक जिम्मेदारी से मुक्त करने का सवाल ही नही उठता है। क्या जब लालकृष्ण आडवाणी राम नाम का पाखंड करने देश में निकले थे तो क्या वाजपेयी को नही पता था। दरअसल भाजपा वाजपेयी को धर्मनिरपेक्ष चेहरे के रूप में इस्तेमाल करती रही है और इस कारण रिपोर्ट में वाजपेयी का नाम आने पर उसे कोफ्त हो रही है।
रिपोर्ट को इतना अधिक समय लगा उसके पीछे कई कारण है। न्यायमूर्ति लिब्रहान ऐसे माहौल में काम कर रहे था जिसमें कुछ लोगों ने इस विचार को स्थापित कर चुके थे कि छह दिसंबर को जो कुछ हुआ वह सही था। लिब्रहान महोदय वर्षो के अथक परिश्रम के बाद किस प्रकार परत दर परत उस कड़वी सचाई पर से पर्दा उठाया है इसका हम अनुमान लगा सकते है। अनुमान करे उन क्षणों का जब घाघ नौकरशाह और सच को झूठ बनाने में माहिर राजनीतिज्ञ आयोग के सामने पेश हुए होंगे। इतने वर्षो में हमने अनेक बार उस काले अध्याय से बचने की कोशिश की पर न्यायमूर्ति लिब्रहान ने आखिर सच से हमारा सामना करवा ही दिया।
लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट का भी वही हश्र होगा जो इससे पहले के गठित किए गए विभिन्न आयोगों की रिपोर्टो का हुआ है। कुछ लोगो का मानना है कि यह रिपोर्ट समाजवादी पार्टी और भाजपा के लिए संजीवनी का काम करेगी। यह सही है कि इस रिपोर्ट को सीढी बनाकर भाजपा और सपा अपने पुराने एजेंडे पर लौट सकते है लेकिन इसका बड़ा फायदा इन पार्टियों को नही होने वाला है। आज मतदाता का मूड बदल चुका है और वह ‘या आली और जय श्रीराम’ के भावनात्मक ज्वार में बहकर वोट डालने वाला नही है।
कांग्रेस ने इस रिपोर्ट का तात्कालिक फायदा जरूर उठा लिया है। सरकार महंगाई, गन्ना किसानों की समस्या, सरकारी कंपनियों में विनिवेश का मसला, नक्सली समस्या, मधु कौड़ा मामला आदि पर चौतरफा घिरी हुई थी लेकिन रिपोर्ट आने के बाद सारे मुद्दे हाशिए पर चले गए है। रिपोर्ट चाहे जहां से लीक हुई हो लेकिन कांग्रेस ने इसका फायदा जरूर उठा लिया है। फिलहाल सभी पार्टियां लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट का राजनीतिक फायदा उठाने की रणनीति बनाने में मशगूल है। बाबरी का भूत फिर से जिंदा हो गया है लेकिन इस बार स्थितियां बदली हुई है।
अरविन्द कुमार सेन
आखिर 17 साल के इंतजार के बाद लिब्रहान आयोग ने अपनी रिपोर्ट पेश कर दी है। इस मसले पर आखिरी समय तक राजनीति होती रही। पहली बात तो रिपोर्ट आने में इतना समय लगा कि वह उद्देश्य ही पूरा नही हो पाया जिसके लिए आयोग गठित हुआ था। दरअसल इस दौरान अधिकांश आरोपी इस रिपोर्ट के दायरे से बाहर हो गए। एक समय ऐसा भी आया जब इस घटना के जिम्मेदार लोग ही देश के कर्त्ता धर्त्ता बन बैठै। यह रिपोर्ट अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है क्योंकि राजनीतिक परिस्थितियां पूरी तरह से बदल चुकी है। इस बीच बाबरी विध्वंस के जिम्मेदार लोग सत्ता की मलाई भी खा चुके है। न्याय में देरी एक तरह से न्याय का अपमान ही है।
इस रिपोर्ट में नया कुछ भी नही है। देश की जनता को तब भी पता था कि इसके लिए कौन लोग जिम्मेदार है। यह आयोग आग लगने के बाद कुआं खोदने की हमारी पुरानी आदत का ही एक प्रमाण है। रिपोर्ट में अटल बिहारी वाजपेयी का नाम आने पर भाजपा भड़क गई । उनका कहना है कि वाजपेयी की बाबरी विध्वंस में कोई भूमिका नही थी इस कारण वाजपेयी का नाम नही आना चाहियें। क्या भाजपा को वाजपेयी का वह बयान याद है जिसमें उन्होंने कहा था कि मै नेता बाद में हूं , पहले एक स्वयंसेवक हूं। क्या भाजपा को अटलजी का बाबरी विध्वंस के एक दिन पहले पत्रकारों को दिया वह बयान याद है जिसमें उन्होंने कहा था कि मुझे नही पता कल क्या होने वाला है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश की पालना के कारसेवक अयोध्या जरूर जायेंगे। वाजपेयी जिस पार्टी के लगभग 25 साल सर्वोच्च नेता रहे उन्हें पार्टी की सामूहिक जिम्मेदारी से मुक्त करने का सवाल ही नही उठता है। क्या जब लालकृष्ण आडवाणी राम नाम का पाखंड करने देश में निकले थे तो क्या वाजपेयी को नही पता था। दरअसल भाजपा वाजपेयी को धर्मनिरपेक्ष चेहरे के रूप में इस्तेमाल करती रही है और इस कारण रिपोर्ट में वाजपेयी का नाम आने पर उसे कोफ्त हो रही है।
रिपोर्ट को इतना अधिक समय लगा उसके पीछे कई कारण है। न्यायमूर्ति लिब्रहान ऐसे माहौल में काम कर रहे था जिसमें कुछ लोगों ने इस विचार को स्थापित कर चुके थे कि छह दिसंबर को जो कुछ हुआ वह सही था। लिब्रहान महोदय वर्षो के अथक परिश्रम के बाद किस प्रकार परत दर परत उस कड़वी सचाई पर से पर्दा उठाया है इसका हम अनुमान लगा सकते है। अनुमान करे उन क्षणों का जब घाघ नौकरशाह और सच को झूठ बनाने में माहिर राजनीतिज्ञ आयोग के सामने पेश हुए होंगे। इतने वर्षो में हमने अनेक बार उस काले अध्याय से बचने की कोशिश की पर न्यायमूर्ति लिब्रहान ने आखिर सच से हमारा सामना करवा ही दिया।
लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट का भी वही हश्र होगा जो इससे पहले के गठित किए गए विभिन्न आयोगों की रिपोर्टो का हुआ है। कुछ लोगो का मानना है कि यह रिपोर्ट समाजवादी पार्टी और भाजपा के लिए संजीवनी का काम करेगी। यह सही है कि इस रिपोर्ट को सीढी बनाकर भाजपा और सपा अपने पुराने एजेंडे पर लौट सकते है लेकिन इसका बड़ा फायदा इन पार्टियों को नही होने वाला है। आज मतदाता का मूड बदल चुका है और वह ‘या आली और जय श्रीराम’ के भावनात्मक ज्वार में बहकर वोट डालने वाला नही है।
कांग्रेस ने इस रिपोर्ट का तात्कालिक फायदा जरूर उठा लिया है। सरकार महंगाई, गन्ना किसानों की समस्या, सरकारी कंपनियों में विनिवेश का मसला, नक्सली समस्या, मधु कौड़ा मामला आदि पर चौतरफा घिरी हुई थी लेकिन रिपोर्ट आने के बाद सारे मुद्दे हाशिए पर चले गए है। रिपोर्ट चाहे जहां से लीक हुई हो लेकिन कांग्रेस ने इसका फायदा जरूर उठा लिया है। फिलहाल सभी पार्टियां लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट का राजनीतिक फायदा उठाने की रणनीति बनाने में मशगूल है। बाबरी का भूत फिर से जिंदा हो गया है लेकिन इस बार स्थितियां बदली हुई है।
किसकी नजर लगी तुझे..............
अरविन्द कुमार सेन
नई दिल्ली,23 नवम्बर। राजनीतिक बहसों के घमासान और अपनी ‘नाइट कल्चर’ के लिए प्रसिद्ध जेएनयू पर आजकल बुरी नजर लग गई है। जिस गंगा ढाबे पर कभी चाय की प्याली में तूफान खड़ा कर दिया जाता था, वहां आजकल शैम्पेन के पैग छलकाएं जा रहे है। जिस जेएनयू की लड़कियां दिन हो या रात ,परिसर में बेरोकटोक घूमती थी वो अब आवारागर्दी से परेशान है।
एक के बाद एक होने वाली घटनाएं इस बात की गवाह है कि अराजक तत्त्वों की नजर जेएनयू को लग चुकी है। बिगड़ैल रईसजादे कैंपस में आकर शराब पीते है और उसके बाद लड़कियों से छेड़खानी अपना अधिकार समझते है। हाल ही में चार बाहरी युवको ने कैंपस में जमकर उत्पात मचाया। चारों ने पहले जमकर शराब पी और उसके बाद लड़कियों से छेड़छाड़ करने लगे। विरोध करने पर पिस्टल निकालकर तान दी। जेएनयू में अब ऐसी घटनाएं आम हो गई है। अभी कुछ दिन पहले ही दो लड़को ने शराब पीकर 24*7 ढाबे पर हुड़दंग मचाया और लड़कियों को परेशान किया था। इससे पहले ताप्ती छात्रावास परिसर, पार्थसारथी चट्टान परिसर (पीएसआर) और पूर्वांचल परिसर में भी इस तरह की घटनाएं हो चुकी है।
अब यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर क्यों मौज-मस्ती के लिए जेएनयू को ही चुना जाता है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण जेएनयू का विशाल हराभरा परिसर और शांत माहौल है। अराजक तत्त्वों को गोश्त और शराब की दावत के लिए जेएनयू सबसे सुरक्षित जगह लगता है। जब से सार्वजनिक स्थलों पर शराब पीने संबंधी नया कानून लागू हुआ है, यहां आने वालो की तादाद काफी बढ गई है। अंतराष्ट्रीय अध्ययन केन्द्र की छात्रा गरिमा का कहना है कि ज्यादातर लोग लड़कियों से छेड़छाड़ करने के लिए आते है। कैंपस में बेफिक्र होकर घूमने की आदी लड़कियां इन मनचलों का आसान शिकार बनती है। हालांकि विश्वविधालय के मुख्य गेट पर जांच की जाती है लेकिन रविवार को बड़ी संख्या में लोगों के आने के कारण सबकी तलाशी संभव नही है।
जेएनयू प्रशासन और पुलिस इन घटनाओं को रोकने में नाकाम रहे है। अपनी सामाजिक संवेदनशीलता और राजनीतिक जागरूकता के लिए जाना जाने वाला जेएनयू धीरे-धीरे शराब, शबाब और कबाब के अड्डे में तब्दील होता जा रहा है। परिसर की गरिमा बनाये रखने के लिए पुलिस और जेएनयू प्रशासन को कड़े कदम उठाने की आवश्यकता है।
अरविन्द कुमार सेन
नई दिल्ली,23 नवम्बर। राजनीतिक बहसों के घमासान और अपनी ‘नाइट कल्चर’ के लिए प्रसिद्ध जेएनयू पर आजकल बुरी नजर लग गई है। जिस गंगा ढाबे पर कभी चाय की प्याली में तूफान खड़ा कर दिया जाता था, वहां आजकल शैम्पेन के पैग छलकाएं जा रहे है। जिस जेएनयू की लड़कियां दिन हो या रात ,परिसर में बेरोकटोक घूमती थी वो अब आवारागर्दी से परेशान है।
एक के बाद एक होने वाली घटनाएं इस बात की गवाह है कि अराजक तत्त्वों की नजर जेएनयू को लग चुकी है। बिगड़ैल रईसजादे कैंपस में आकर शराब पीते है और उसके बाद लड़कियों से छेड़खानी अपना अधिकार समझते है। हाल ही में चार बाहरी युवको ने कैंपस में जमकर उत्पात मचाया। चारों ने पहले जमकर शराब पी और उसके बाद लड़कियों से छेड़छाड़ करने लगे। विरोध करने पर पिस्टल निकालकर तान दी। जेएनयू में अब ऐसी घटनाएं आम हो गई है। अभी कुछ दिन पहले ही दो लड़को ने शराब पीकर 24*7 ढाबे पर हुड़दंग मचाया और लड़कियों को परेशान किया था। इससे पहले ताप्ती छात्रावास परिसर, पार्थसारथी चट्टान परिसर (पीएसआर) और पूर्वांचल परिसर में भी इस तरह की घटनाएं हो चुकी है।
अब यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर क्यों मौज-मस्ती के लिए जेएनयू को ही चुना जाता है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण जेएनयू का विशाल हराभरा परिसर और शांत माहौल है। अराजक तत्त्वों को गोश्त और शराब की दावत के लिए जेएनयू सबसे सुरक्षित जगह लगता है। जब से सार्वजनिक स्थलों पर शराब पीने संबंधी नया कानून लागू हुआ है, यहां आने वालो की तादाद काफी बढ गई है। अंतराष्ट्रीय अध्ययन केन्द्र की छात्रा गरिमा का कहना है कि ज्यादातर लोग लड़कियों से छेड़छाड़ करने के लिए आते है। कैंपस में बेफिक्र होकर घूमने की आदी लड़कियां इन मनचलों का आसान शिकार बनती है। हालांकि विश्वविधालय के मुख्य गेट पर जांच की जाती है लेकिन रविवार को बड़ी संख्या में लोगों के आने के कारण सबकी तलाशी संभव नही है।
जेएनयू प्रशासन और पुलिस इन घटनाओं को रोकने में नाकाम रहे है। अपनी सामाजिक संवेदनशीलता और राजनीतिक जागरूकता के लिए जाना जाने वाला जेएनयू धीरे-धीरे शराब, शबाब और कबाब के अड्डे में तब्दील होता जा रहा है। परिसर की गरिमा बनाये रखने के लिए पुलिस और जेएनयू प्रशासन को कड़े कदम उठाने की आवश्यकता है।
.......मर्ज बढता गया, ज्यों ज्यों दवा की
अरविन्द कुमार सेन
हॉकी इंडिया और खिलाड़ियों के बीच चल रहा घमासान फिलहाल थम गया है। हालांकि खिलाड़ी पुणे में चल रहे तैयारी शिविर में लौट गये हैं लेकिन यह कहना कठिन है कि उन समस्याओं का समाधान हो गया है जिनके लिए खिलाड़ियों ने बगावत की थी।
एक समय हॉकी में परचम लहराने वाली भारतीय हॉकी टीम आज अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है। याद करें उस समय को जब भारतीय हॉकी टीम ने अमेरिकी हॉकी टीम को 20 गोलों से रौंदा था और उसके बाद अमेरिका ने हॉकी प्रतियोगिताओं में भाग लेना छोड़ दिया था। ओलंपिक खेलों में सोने के तमगे जीतकर इतिहास रचने वाली भारतीय हॉकी टीम आज 12 देशों के विश्व पूल में 12वें स्थान पर है। भारतीय हॉकी टीम की हालत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पुरूषों की एशिया कप हॉकी में टीम पांचवें स्थान पर और जूनियर विश्व कप हॉकी में टीम नौंवे स्थान पर रही। महिला हॉकी टीम जरूर एशिया कप हॉकी में दूसरा स्थान पा कर हॉकी विश्व कप 2010 में जगह बनाने में कामयाब रही।
भारतीय हॉकी में उठापटक का दौर पिछले साल उस समय शुरू हुआ जब टीम बीजिंग ओलंपिक के लिए क्वालिफाई नहीं कर पाई। इसके बाद हुई छीछालेदर से परेशान सरकार ने केपीएस गिल को अध्यक्ष पद से हटाकर इंडियन हॉकी फेडरेशन को भंग कर दिया। इसके बाद अंतराष्ट्रीय हॉकी संघ के दबाव में पूर्व ओलंपियन अशोक कुमार के नेतृत्व में हॉकी इंडिया का गठन किया गया। हॉकी खिलाड़ियों के हाथ में कमान आने के बाद खेलप्रेमियों ने हॉकी का सुनहरा अतीत लौटने की उम्मीद लगाई लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात।
दरअसल जब से राजनेता खेलसंघों के कर्ताधर्ता बने हैं तब से स्थिति सुधरने की बजाय बिगड़ती जा रही है। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी, जिन्हें ठीक से हॉकी स्टिक पकड़ना नहीं आता होगा लेकिन वे हॉकी इंडिया के अध्यक्ष बनने की तैयारी कर रहे हैं। जब तक खेलसंघ नौकरशाही और राजनीति के चंगुल में फंसे रहेंगे, उनसे बेहतर प्रशासन की उम्मीद करना बेमानी है। अगर हमें खेलों की हालत सुधारनी है तो खेल संघों की कमान खिलाड़ियों के हाथ में सौंपनी होगी। राजनेता या उद्यमी अगर चाहें तो संरक्षक के तौर पर खेल संघों की सहायता कर सकते हैं। जहां तक हॉकी के खोये गौरव को पाने का सवाल है तो इसके लिए खिलाड़ियों, जनता और सरकार सभी को मिलकर प्रयास करने होंगे। हॉकी की दुर्दशा के लिए केवल क्रिकेट को जिम्मेदार ठहराना गलत है। कोई भी खेल तभी चल पायेगा जब लोग उसमें रूचि लें। अगर हॉकी खिलाड़ी यह ठान लें कि 90 मिनट के मैच में वो लोगों का दिल जीत लेंगे तो कोई कारण नहीं है कि हॉकी को क्रिकेट से कम प्यार मिलेगा। जहां क्रिकेट खिलाड़ियों कि छोटी छोटी उपलब्धियों को बढ़ा चढ़ाकर कर पेश किया जाता है वहीं हॉकी खिलाड़ियों का सम्मान करना तो दूर हम ज्यादातर का नाम भी नहीं जानते हैं। अगर हम धोनी के धुरंधरों से ध्यान हटाकर अपना थोड़ा सा समय हॉकी को दें तो हॉकी का गौरवशाली अतीत लौटने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। हॉकी के मामले में सरकार की भूमिका भी संदिग्ध रही है। केवल राष्ट्रीय खेल घोषित कर देने से ही हॉकी का उद्धार नहीं हो जायेगा। सबसे बड़ी बात है कि हॉकी को लोगों का खेल बनाना होगा। अगर ऐसा हुआ तो लूट-खसोट करने वाले अपने आप पीछे हट जायेंगे और खेल प्रेमी ही इसकी रक्षा का बीड़ा उठा लेंगे।
28 फरवरी से देश में हॉकी विश्व कप शुरू होने जा रहा है लेकिन किसी भी महानगर में भारतीय हॉकी टीम का पोस्टर नहीं लगाया गया है। हॉकी खिलाड़ियों को न तो टीवी पर प्रोडक्ट की तरह पेश किया गया है और न ही मीडिया उन्हें हीरो की तरह दिखा रहा है। ऐसा लग रहा है कि क्रिकेट की चमक दमक से मीडिया चौंधिया गया है और वह हॉकी तथा दूसरे खेलों को नहीं देख पा रहा है।
हॉकी इंडिया के चुनाव नवंबर में होने थे लेकिन अव्यवस्था का आलम यह है कि चुनाव अब तक नहीं हुए हैं। इससे बड़ी भ्रामक स्थिति क्या होगी कि विश्वकप शुरू होने में दो महीने से भी कम समय बचा है लेकिन खिलाड़ी अपनी मांगें मनवाने के लिए हड़ताल पर जाने को मजबूर हैं। हो सकता है कि वक्त की नजाकत को देखते हुए खिलाड़ियों की मांगें मान ली गई हों लेकिन ये फौरी उपाय दीर्घकाल के लिए नुकसानदायी साबित होंगे। सवाल यह है कि राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद हॉकी खिलाड़ी अपने मेहनताने के लिए हड़ताल पर जाने को मजबूर क्यों हुए हैं?
हॉकी खिलाड़ियों को एक सीरीज के लिए केवल 25 हजार रूपए दिये जाते हैं वहीं दूसरी ओर क्रिकेट खिलाड़ियों को भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड वनडे मैच के लिए डेढ़ लाख और टेस्ट मैच के लिए ढ़ाई लाख रूपए देता है। इसके अलावा सालाना अनुबंध के तहत बोर्ड खिलाड़ियों को न्यूनतम 15 लाख रूपए से लेकर अधिकतम 60 लाख रूपए तक का भुगतान करता है और विज्ञापनों से होने वाली आय अलग है। हॉकी खिलाड़ियों ने आरोप लगाया था कि उन्हें पिछले माह अर्जेन्टीना में हुई चैंपियंस ट्रॉफी का भुगतान अब तक नहीं किया गया, अगर ये आरोप सही हैं तो हम हॉकी की उपेक्षा का अंदाजा लगा सकते हैं।
विश्वकप नजदीक है लेकिन खिलाड़ी अपनी समस्याओं से परेशान हैं और हॉकी इंडिया जनवरी के आखिरी सप्ताह में होने वाले चुनावों में व्यस्त है। टीम का प्रदर्शन कैसा रहेगा इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। हॉकी को मेजर ध्यानचंद के दौर में पहुंचाने के लिए हॉकी इंडिया में आमूल-चूल परिवर्तन करने होंगे जिसकी भनक फिलहाल तो दूर-दूर तक नहीं है।
अरविन्द कुमार सेन
हॉकी इंडिया और खिलाड़ियों के बीच चल रहा घमासान फिलहाल थम गया है। हालांकि खिलाड़ी पुणे में चल रहे तैयारी शिविर में लौट गये हैं लेकिन यह कहना कठिन है कि उन समस्याओं का समाधान हो गया है जिनके लिए खिलाड़ियों ने बगावत की थी।
एक समय हॉकी में परचम लहराने वाली भारतीय हॉकी टीम आज अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है। याद करें उस समय को जब भारतीय हॉकी टीम ने अमेरिकी हॉकी टीम को 20 गोलों से रौंदा था और उसके बाद अमेरिका ने हॉकी प्रतियोगिताओं में भाग लेना छोड़ दिया था। ओलंपिक खेलों में सोने के तमगे जीतकर इतिहास रचने वाली भारतीय हॉकी टीम आज 12 देशों के विश्व पूल में 12वें स्थान पर है। भारतीय हॉकी टीम की हालत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पुरूषों की एशिया कप हॉकी में टीम पांचवें स्थान पर और जूनियर विश्व कप हॉकी में टीम नौंवे स्थान पर रही। महिला हॉकी टीम जरूर एशिया कप हॉकी में दूसरा स्थान पा कर हॉकी विश्व कप 2010 में जगह बनाने में कामयाब रही।
भारतीय हॉकी में उठापटक का दौर पिछले साल उस समय शुरू हुआ जब टीम बीजिंग ओलंपिक के लिए क्वालिफाई नहीं कर पाई। इसके बाद हुई छीछालेदर से परेशान सरकार ने केपीएस गिल को अध्यक्ष पद से हटाकर इंडियन हॉकी फेडरेशन को भंग कर दिया। इसके बाद अंतराष्ट्रीय हॉकी संघ के दबाव में पूर्व ओलंपियन अशोक कुमार के नेतृत्व में हॉकी इंडिया का गठन किया गया। हॉकी खिलाड़ियों के हाथ में कमान आने के बाद खेलप्रेमियों ने हॉकी का सुनहरा अतीत लौटने की उम्मीद लगाई लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात।
दरअसल जब से राजनेता खेलसंघों के कर्ताधर्ता बने हैं तब से स्थिति सुधरने की बजाय बिगड़ती जा रही है। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी, जिन्हें ठीक से हॉकी स्टिक पकड़ना नहीं आता होगा लेकिन वे हॉकी इंडिया के अध्यक्ष बनने की तैयारी कर रहे हैं। जब तक खेलसंघ नौकरशाही और राजनीति के चंगुल में फंसे रहेंगे, उनसे बेहतर प्रशासन की उम्मीद करना बेमानी है। अगर हमें खेलों की हालत सुधारनी है तो खेल संघों की कमान खिलाड़ियों के हाथ में सौंपनी होगी। राजनेता या उद्यमी अगर चाहें तो संरक्षक के तौर पर खेल संघों की सहायता कर सकते हैं। जहां तक हॉकी के खोये गौरव को पाने का सवाल है तो इसके लिए खिलाड़ियों, जनता और सरकार सभी को मिलकर प्रयास करने होंगे। हॉकी की दुर्दशा के लिए केवल क्रिकेट को जिम्मेदार ठहराना गलत है। कोई भी खेल तभी चल पायेगा जब लोग उसमें रूचि लें। अगर हॉकी खिलाड़ी यह ठान लें कि 90 मिनट के मैच में वो लोगों का दिल जीत लेंगे तो कोई कारण नहीं है कि हॉकी को क्रिकेट से कम प्यार मिलेगा। जहां क्रिकेट खिलाड़ियों कि छोटी छोटी उपलब्धियों को बढ़ा चढ़ाकर कर पेश किया जाता है वहीं हॉकी खिलाड़ियों का सम्मान करना तो दूर हम ज्यादातर का नाम भी नहीं जानते हैं। अगर हम धोनी के धुरंधरों से ध्यान हटाकर अपना थोड़ा सा समय हॉकी को दें तो हॉकी का गौरवशाली अतीत लौटने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। हॉकी के मामले में सरकार की भूमिका भी संदिग्ध रही है। केवल राष्ट्रीय खेल घोषित कर देने से ही हॉकी का उद्धार नहीं हो जायेगा। सबसे बड़ी बात है कि हॉकी को लोगों का खेल बनाना होगा। अगर ऐसा हुआ तो लूट-खसोट करने वाले अपने आप पीछे हट जायेंगे और खेल प्रेमी ही इसकी रक्षा का बीड़ा उठा लेंगे।
28 फरवरी से देश में हॉकी विश्व कप शुरू होने जा रहा है लेकिन किसी भी महानगर में भारतीय हॉकी टीम का पोस्टर नहीं लगाया गया है। हॉकी खिलाड़ियों को न तो टीवी पर प्रोडक्ट की तरह पेश किया गया है और न ही मीडिया उन्हें हीरो की तरह दिखा रहा है। ऐसा लग रहा है कि क्रिकेट की चमक दमक से मीडिया चौंधिया गया है और वह हॉकी तथा दूसरे खेलों को नहीं देख पा रहा है।
हॉकी इंडिया के चुनाव नवंबर में होने थे लेकिन अव्यवस्था का आलम यह है कि चुनाव अब तक नहीं हुए हैं। इससे बड़ी भ्रामक स्थिति क्या होगी कि विश्वकप शुरू होने में दो महीने से भी कम समय बचा है लेकिन खिलाड़ी अपनी मांगें मनवाने के लिए हड़ताल पर जाने को मजबूर हैं। हो सकता है कि वक्त की नजाकत को देखते हुए खिलाड़ियों की मांगें मान ली गई हों लेकिन ये फौरी उपाय दीर्घकाल के लिए नुकसानदायी साबित होंगे। सवाल यह है कि राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद हॉकी खिलाड़ी अपने मेहनताने के लिए हड़ताल पर जाने को मजबूर क्यों हुए हैं?
हॉकी खिलाड़ियों को एक सीरीज के लिए केवल 25 हजार रूपए दिये जाते हैं वहीं दूसरी ओर क्रिकेट खिलाड़ियों को भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड वनडे मैच के लिए डेढ़ लाख और टेस्ट मैच के लिए ढ़ाई लाख रूपए देता है। इसके अलावा सालाना अनुबंध के तहत बोर्ड खिलाड़ियों को न्यूनतम 15 लाख रूपए से लेकर अधिकतम 60 लाख रूपए तक का भुगतान करता है और विज्ञापनों से होने वाली आय अलग है। हॉकी खिलाड़ियों ने आरोप लगाया था कि उन्हें पिछले माह अर्जेन्टीना में हुई चैंपियंस ट्रॉफी का भुगतान अब तक नहीं किया गया, अगर ये आरोप सही हैं तो हम हॉकी की उपेक्षा का अंदाजा लगा सकते हैं।
विश्वकप नजदीक है लेकिन खिलाड़ी अपनी समस्याओं से परेशान हैं और हॉकी इंडिया जनवरी के आखिरी सप्ताह में होने वाले चुनावों में व्यस्त है। टीम का प्रदर्शन कैसा रहेगा इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। हॉकी को मेजर ध्यानचंद के दौर में पहुंचाने के लिए हॉकी इंडिया में आमूल-चूल परिवर्तन करने होंगे जिसकी भनक फिलहाल तो दूर-दूर तक नहीं है।
अब कीचड़ में खेलता कोई बच्चा नजर नही आता है
अरविन्द कुमार सेन
मुझे अक्सर यह सोचकर हैरत होती है कि आधुनिक समय में शिक्षक की अवधारणा किस कदर बदल गई है। मुझे याद है कि हमारे शिक्षक पढाए जाने वाले विषयों को हमारे लिए दिलचस्प बनाने की कोशिश करते थे। तब बच्चों को किताबी कीड़ा बनाने की कोशिश नहीं होती थी, बल्कि उन्हें यह बताया जाता था कि वास्तव इन विषयों का अध्ययन क्यों करना चाहिए। यही से मै अपनी मूल बात पर आता हूं। आज विषयों के बारे में पढना बेहद उबाऊ बना दिया गया है। इस देश में शिक्षा प्रणाली का ढांचा तो मैकाले का बनाया हुआ है जो केवल सिस्टम चलाने के लिए बाबू तैयार करता है लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं करेगा कि पहले छात्रों पर इतना दबाव नही था। जब से भूमण्डलीकरण की आंधी बहनी शुरू हुई है, शिक्षा तंत्र तहस नहस हो गया है। आज सारा जोर नंबरों पर रहता है,विद्यार्धियों के बौद्धिक विकास पर कोई ध्यान नही दिया जाता है। तथाकथित प्रतिष्ठत स्कूलों में वातानुकूलित बसें और छात्रावास तो है लेकिन उनके पास खेल के मैदान नहीं है। अभिभावकों और स्कूल प्रशासन का दबाव बच्चों की बालसुलभ कोमलता को खत्म कर उन्हें समय से पहले ही समझदार बना रहा है। बड़ा अफसोस होता है कभी कभार क्योंकि अब मुझे कीचड़ में खेलता कोई बच्चा नजर नहीं आता है।
वैसे मुझे सबसे ज्यादा शिकायत नीति-निर्माताओं से है। जिस देश की शिक्षा का पाठ्यक्रम सरकार बदलने के साथ ही भगवाकरण और तुष्टीकरण के नाम पर बदल दिया जाता है वो कैसे विद्यार्थी तैयार करता है इसका अंदाज लगाया जा सकता है। ये बढते तनाव का ही नतीजा है कि जो बच्चें सही से पेन पकड़ना नही जानते है वो रिवॉल्वर से अपने साथियों की हत्या कर रहें है। इससे बड़ी विडंहना क्या होगी कि इस शिक्षा प्रणाली में केवल पास होने वाले छात्र ही सफल माना जाता है। एक छात्र जो संगीत या किसी दूसरी विद्या में पारंगत है लेकिन अपने संस्थान की परीक्षा में फेल हो गया है उसे यह सिस्टम अस्वीकार कर देता है। यह सिस्टम आपको मानवीय संवेदनाओं से रहित डॉक्टर या इंजीनियर बनाने की गारंटी लेता है लेकिन एक अच्छा इंसान बनाने की कोई गारंटी नहीं हो सकता है।
केवल ग्रेडिंग प्रणाली जैसे फौरी उपायों से स्थिती में ज्यादा सुधार नही होने वाला है। समय की मांग को देखते हुए पूरी शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल बदलाव करने की आवश्यकता है। साथ ही हमें भूमंडलीकण की आंधी से भी अपने नौनिहालों को बचाना होगा। दुनियाभर के शिक्षाविद इस बात पर एकमत है कि बच्चों कि प्रारंभिक शिक्षा उनकी मातृक्षभाषा में होनी चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि बच्चों की सृजनात्मक क्षमता सुरक्षित रहें।हमें अपने बच्चों को किताबी कीड़ा बनने से बचाने की जरूरत है। आखिर कोई भी विषय सिर्फ अंक हासिल करने के लिए नही पढाया जाता है। हर विषय हमारे जीवन से कहीं न कहीं जुड़ा है। इस जुड़ाव के बारे में बच्चों को समझाना होगा।
अरविन्द कुमार सेन
मुझे अक्सर यह सोचकर हैरत होती है कि आधुनिक समय में शिक्षक की अवधारणा किस कदर बदल गई है। मुझे याद है कि हमारे शिक्षक पढाए जाने वाले विषयों को हमारे लिए दिलचस्प बनाने की कोशिश करते थे। तब बच्चों को किताबी कीड़ा बनाने की कोशिश नहीं होती थी, बल्कि उन्हें यह बताया जाता था कि वास्तव इन विषयों का अध्ययन क्यों करना चाहिए। यही से मै अपनी मूल बात पर आता हूं। आज विषयों के बारे में पढना बेहद उबाऊ बना दिया गया है। इस देश में शिक्षा प्रणाली का ढांचा तो मैकाले का बनाया हुआ है जो केवल सिस्टम चलाने के लिए बाबू तैयार करता है लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं करेगा कि पहले छात्रों पर इतना दबाव नही था। जब से भूमण्डलीकरण की आंधी बहनी शुरू हुई है, शिक्षा तंत्र तहस नहस हो गया है। आज सारा जोर नंबरों पर रहता है,विद्यार्धियों के बौद्धिक विकास पर कोई ध्यान नही दिया जाता है। तथाकथित प्रतिष्ठत स्कूलों में वातानुकूलित बसें और छात्रावास तो है लेकिन उनके पास खेल के मैदान नहीं है। अभिभावकों और स्कूल प्रशासन का दबाव बच्चों की बालसुलभ कोमलता को खत्म कर उन्हें समय से पहले ही समझदार बना रहा है। बड़ा अफसोस होता है कभी कभार क्योंकि अब मुझे कीचड़ में खेलता कोई बच्चा नजर नहीं आता है।
वैसे मुझे सबसे ज्यादा शिकायत नीति-निर्माताओं से है। जिस देश की शिक्षा का पाठ्यक्रम सरकार बदलने के साथ ही भगवाकरण और तुष्टीकरण के नाम पर बदल दिया जाता है वो कैसे विद्यार्थी तैयार करता है इसका अंदाज लगाया जा सकता है। ये बढते तनाव का ही नतीजा है कि जो बच्चें सही से पेन पकड़ना नही जानते है वो रिवॉल्वर से अपने साथियों की हत्या कर रहें है। इससे बड़ी विडंहना क्या होगी कि इस शिक्षा प्रणाली में केवल पास होने वाले छात्र ही सफल माना जाता है। एक छात्र जो संगीत या किसी दूसरी विद्या में पारंगत है लेकिन अपने संस्थान की परीक्षा में फेल हो गया है उसे यह सिस्टम अस्वीकार कर देता है। यह सिस्टम आपको मानवीय संवेदनाओं से रहित डॉक्टर या इंजीनियर बनाने की गारंटी लेता है लेकिन एक अच्छा इंसान बनाने की कोई गारंटी नहीं हो सकता है।
केवल ग्रेडिंग प्रणाली जैसे फौरी उपायों से स्थिती में ज्यादा सुधार नही होने वाला है। समय की मांग को देखते हुए पूरी शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल बदलाव करने की आवश्यकता है। साथ ही हमें भूमंडलीकण की आंधी से भी अपने नौनिहालों को बचाना होगा। दुनियाभर के शिक्षाविद इस बात पर एकमत है कि बच्चों कि प्रारंभिक शिक्षा उनकी मातृक्षभाषा में होनी चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि बच्चों की सृजनात्मक क्षमता सुरक्षित रहें।हमें अपने बच्चों को किताबी कीड़ा बनने से बचाने की जरूरत है। आखिर कोई भी विषय सिर्फ अंक हासिल करने के लिए नही पढाया जाता है। हर विषय हमारे जीवन से कहीं न कहीं जुड़ा है। इस जुड़ाव के बारे में बच्चों को समझाना होगा।
परदे के पीछे के महारथी
हमारे आस पास निर्माण कार्यों में लगे मजदूर एक तरह से गुमनाम हीरो है,जिन्हें सराहा नहीं जाता है। इन्हें न कोई याद करता है और न ही इन्हें कोई सम्मान दिया जाता है। निर्माण कार्य पूरा होने पर किसी नेता या नौकरशाह को उद्घाटन के लिए बुलाया जाता है और इन भागीरथों को भुला दिया जाता है। ये मजदूर नींव की उस ईंट की भांति है जो इमारत को मजबूती देने के लिए खुद मिट्टी में दफन हो जाती है। निर्माण कार्यों में होने वाली दुर्घटनाओं में अनेक बार इन मजदूरों की जान चली जाती है लेकिन हम इनकी मौत पर संवेदना व्यक्त करना भी जरूरी नही समझते है। शायद हमारी संवेदनशीलता का स्त्रोत सूख गया है। ठेकेदार भी इन मजदूरों का जम कर शोषण करते है। तय मानको से कम मजदूरी इन्हें दी जाती है और दुर्घटना होने पर महज 30 से 40 हजार रूपये देकर पल्ला झाड़ लेते है।
निर्माण कार्यों में लगे ये मजदूर ज्यादातर दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों से आते है। महज 80 से 90 रूपये प्रतिदिन पाने वाले ये मजदूर रोटी, कपड़ा और मकान जैसी आधारभूत सुविधायें जुटा पाने में असमर्थ होते है। जहां निर्माण कार्य चल रहा होता है उसी जगह को ये अपना आशियाना बना लेते है। न पीने का साफ पानी और दूसरी जरूरी सुविधाएं लेकिन ये मजदूर अनवरत देश निर्माण में लगे रहते है। चाहे चिलचिलाती धूप हो या कड़कड़ाती सर्दी, ये लोग हमारे लिए चमकदार फ्लाईओवर और राजमार्ग बनाने में व्यस्त रहते है।
हम चाहे तो इन लोगों की सहायता कर सकते है। इस भयंकर सर्दी में ये मजदूर और इनके बच्चें खुले में ठिठुरते रहते है। हमारे घरों में पुराने कपड़ों का ढेर लगा रहता है। आइयें एक कसम लें कि हमारे आस पास काम कर रहे मजदूरों की सहायता करेंगे। अपने पुराने कपड़े फेंकने की बजाय अगर इन्हें देंगे तो शायद उनका सदुपयोग भी होगा और इस बहाने हम देश निर्माण में अपना योगदान दे पायेंगे।
नीति निर्माता भले ही लाख दावे करें लेकिन ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं को अपने पसीने से सींचने वाले ये मजदूर बदहाल जीवन जी रहे है। महिला मजदूरों और बच्चों की हालत तो और भी दयनीय है। इन सब समस्याओं के बावजूद ये मजदूर खामोशी के साथ नया भारत बनाने में जुटे है।
हमारे आस पास निर्माण कार्यों में लगे मजदूर एक तरह से गुमनाम हीरो है,जिन्हें सराहा नहीं जाता है। इन्हें न कोई याद करता है और न ही इन्हें कोई सम्मान दिया जाता है। निर्माण कार्य पूरा होने पर किसी नेता या नौकरशाह को उद्घाटन के लिए बुलाया जाता है और इन भागीरथों को भुला दिया जाता है। ये मजदूर नींव की उस ईंट की भांति है जो इमारत को मजबूती देने के लिए खुद मिट्टी में दफन हो जाती है। निर्माण कार्यों में होने वाली दुर्घटनाओं में अनेक बार इन मजदूरों की जान चली जाती है लेकिन हम इनकी मौत पर संवेदना व्यक्त करना भी जरूरी नही समझते है। शायद हमारी संवेदनशीलता का स्त्रोत सूख गया है। ठेकेदार भी इन मजदूरों का जम कर शोषण करते है। तय मानको से कम मजदूरी इन्हें दी जाती है और दुर्घटना होने पर महज 30 से 40 हजार रूपये देकर पल्ला झाड़ लेते है।
निर्माण कार्यों में लगे ये मजदूर ज्यादातर दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों से आते है। महज 80 से 90 रूपये प्रतिदिन पाने वाले ये मजदूर रोटी, कपड़ा और मकान जैसी आधारभूत सुविधायें जुटा पाने में असमर्थ होते है। जहां निर्माण कार्य चल रहा होता है उसी जगह को ये अपना आशियाना बना लेते है। न पीने का साफ पानी और दूसरी जरूरी सुविधाएं लेकिन ये मजदूर अनवरत देश निर्माण में लगे रहते है। चाहे चिलचिलाती धूप हो या कड़कड़ाती सर्दी, ये लोग हमारे लिए चमकदार फ्लाईओवर और राजमार्ग बनाने में व्यस्त रहते है।
हम चाहे तो इन लोगों की सहायता कर सकते है। इस भयंकर सर्दी में ये मजदूर और इनके बच्चें खुले में ठिठुरते रहते है। हमारे घरों में पुराने कपड़ों का ढेर लगा रहता है। आइयें एक कसम लें कि हमारे आस पास काम कर रहे मजदूरों की सहायता करेंगे। अपने पुराने कपड़े फेंकने की बजाय अगर इन्हें देंगे तो शायद उनका सदुपयोग भी होगा और इस बहाने हम देश निर्माण में अपना योगदान दे पायेंगे।
नीति निर्माता भले ही लाख दावे करें लेकिन ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं को अपने पसीने से सींचने वाले ये मजदूर बदहाल जीवन जी रहे है। महिला मजदूरों और बच्चों की हालत तो और भी दयनीय है। इन सब समस्याओं के बावजूद ये मजदूर खामोशी के साथ नया भारत बनाने में जुटे है।
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